Tuesday 21 September 2021

अवलंबन


अवलंबन

 क्षितिज साक्ष्य था,

जिजीविषा का तुम्हारी,

किया मैंने परित्राण।


अवलंब बना मैं निरीह,

एक वटवृक्ष का,

कर समर्पण तन और प्राण।


छांव मिले,

कल पथिक को तुमसे,

ईश्वर!न देना मुझे तनिक अभिमान।


स्पृहा अशेष अब,

इस सहचर्य धर्म में,

संभवतः सुलभ हो निर्वाण।

Monday 6 September 2021

अनसुलझे सवाल


कुछ सवाल,

अब भी अनसुलझे हैं,

जवाब की उम्मीद है,

अरसा बीत गया इंतजार को।


हक़ से तुमने  तो सवाल किए थे,

जवाब कठिन था,

 शायद,

किंकर्तव्यविमुढ सा मैं,

सहा तुम्हारे मौन प्रतिकार को।


कौन कहता है ,

कि तुम आहिस्ता बहती हो

रेवा,

देखा है मैंने,

महेश्वर की घाट पर,

तुम्हारी अविरल धार को।