अवलंबन
क्षितिज साक्ष्य था,
जिजीविषा का तुम्हारी,
किया मैंने परित्राण।
अवलंब बना मैं निरीह,
एक वटवृक्ष का,
कर समर्पण तन और प्राण।
छांव मिले,
कल पथिक को तुमसे,
ईश्वर!न देना मुझे तनिक अभिमान।
स्पृहा अशेष अब,
इस सहचर्य धर्म में,
संभवतः सुलभ हो निर्वाण।
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