अवलंबन
क्षितिज साक्ष्य था,
जिजीविषा का तुम्हारी,
किया मैंने परित्राण।
अवलंब बना मैं निरीह,
एक वटवृक्ष का,
कर समर्पण तन और प्राण।
छांव मिले,
कल पथिक को तुमसे,
ईश्वर!न देना मुझे तनिक अभिमान।
स्पृहा अशेष अब,
इस सहचर्य धर्म में,
संभवतः सुलभ हो निर्वाण।
अवलंबन
क्षितिज साक्ष्य था,
जिजीविषा का तुम्हारी,
किया मैंने परित्राण।
अवलंब बना मैं निरीह,
एक वटवृक्ष का,
कर समर्पण तन और प्राण।
छांव मिले,
कल पथिक को तुमसे,
ईश्वर!न देना मुझे तनिक अभिमान।
स्पृहा अशेष अब,
इस सहचर्य धर्म में,
संभवतः सुलभ हो निर्वाण।
कुछ सवाल,
अब भी अनसुलझे हैं,
जवाब की उम्मीद है,
अरसा बीत गया इंतजार को।
हक़ से तुमने तो सवाल किए थे,
जवाब कठिन था,
शायद,
किंकर्तव्यविमुढ सा मैं,
सहा तुम्हारे मौन प्रतिकार को।
कौन कहता है ,
कि तुम आहिस्ता बहती हो
रेवा,
देखा है मैंने,
महेश्वर की घाट पर,
तुम्हारी अविरल धार को।